वात या वायु तीनों दोषों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है | ‘वात’ या ‘वायु’ यह दोनों ही शब्द संस्कृत के वा गतिगन्धनयो: धातु से बने हैं, इसके अनुसार जो तत्व शरीर में गति या उत्साह उत्पन्न करें, वह वात अथवा वायु कहलाता है | इस प्रकार शरीर में सभी प्रकार की गतियां इसी वात के कारण होती है | वात को ही ‘प्राण’ भी कहा गया है | अथर्ववेद में ‘प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे’ कहकर संपूर्ण ब्रहमांड को प्राण के वश में कहा गया है | चरक में वायु को ही अग्नि का प्रेरक, सभी इंद्रियों का प्रेरक तथा हर्ष व उत्साह का उत्पत्तिस्थान कहा गया है; क्योंकि यह वायु ही शरीरगत सभी धातुओं को अपने अपने कार्य में प्रवृत्त करता है तथा शरीर को धारण करने वाला वायु ही है | यही प्राण वायु के रूप में पंचमहाभूतों में विधमान है, वात के रूप में त्रिदोष में स्थित है | वही वायु श्वास-प्रश्वास व उर्जा के रूप में देह को धारण करता है, इसी का नाम प्राण वायु या वात है | यह प्राण शब्द जीवनीय शक्ति का घोतक है | यह मन, ज्ञानेंद्रियों और कर्म इंद्रियों को अपने-अपने विषयों और कर्मों में नियुक्त करता है | शरीर की पाचक अग्नि और धात्वग्नियो को भी यही प्रदीप्त करता है | हमारे शरीर में जो विभिन्न स्रोत हैं, उनके छोटे बड़े विवरों (खाली स्थानों) का निर्माण भी यही वात ही करता है | रस, रक्त आदि प्रत्येक धातु की सूक्ष्म से स्थूल रचना तथा शरीर के एक अंग का दूसरे अंग से संबंध का कारण भी यही वात है | इसी के कारण गर्भ में स्थित भ्रूण का विकास व उसके आकार का निर्माण हो पाता है | नाड़ीमंडल की सभी क्रियाओं का नियंत्रण इसी वात के अधीन है | वात के बिना तो दूसरे दोनों दोष- पित्त और कफ भी पंगु के समान निष्क्रिय से रहते हैं, क्योंकि यह वात ही इन दोनों दोषों तथा मलो को अपने अपने स्थान पर स्थिर रखता है तथा आवश्यकता पड़ने पर अन्यत्र पहुंचाता है | इस प्रकार मल, मूत्र, स्वेद आदि मलो को शरीर से बाहर निकालने वाला यह वात दोष ही है | जब यह अपनी समावस्था में रहता है तो सभी दोषों धातुओं और मलो को भी सम अवस्था में रखता है | परंतु जब यह दूषित या कुपित हो जाए, तो सभी दोषों, धातुओं, मलो और स्रोतों को भी दूषित कर देता है, क्योंकि गतिशील होने के कारण यह किसी भी दोष को दूसरे स्थान पर पहुंचा देता है, जिससे उस स्थान पर पहले से ही विद्यमान दोष में वृद्धि हो जाती है और रोग उत्पन्न हो जाता है |
इस प्रकार आयुर्वेद के अनुसार शरीर में सभी प्रकार के रोगों का मूल कारण इसी वात का प्रकुपित होना ही है | जहां सामान्य दशा में वात दोषों और दूष्यों (धातु, मलों, उपधातुओं) को अलग-अलग रखता है, वही कुपित होने पर इनको आपस में संयुक्त कर देता है, जिससे रोग उत्पन्न हो जाते हैं |
वात में एक गुण है – योगवाहिता, अर्थात अन्य दोषों के सहयोग से उनके गुणों को धारण करना | इस प्रकार जब यह पित्त दोष के साथ मिलता है तो उसमें दाह, उष्णता आदि पित्त के गुण आ जाते हैं, और जब कफ के साथ मिलता है तो उसमें शीतलता, क्लेदन (गीलापन) आदि गुण आ जाते हैं | यह वात स्थान और कर्म के भेद से पांच प्रकार का माना गया है प्राण, उदान, समान, व्यान और अपान |
सभी प्रकार के रोगों की उत्पत्ति में वात का योगदान होता है, परंतु केवल वात के प्रकोप से उत्पन्न होने वाले नानात्मज रोग, संख्या में 80 माने गए हैं |