पित्त शब्द संस्कृत के ‘तप’ धातु से बना है- ‘तपती इति पित्तम’ अर्थात जो तत्व शरीर में ताप (दाह) गर्मी (उष्णता) उत्पन्न करता है, वह पित्त कहलाता है | यह शरीर में उत्पन्न होने वाले पाचक रसों और हारमोंस का नियमन करता है | हम जो भी कुछ खाते पीते या श्वास के रूप में वात का ग्रहण करते हैं, उन्हें शरीर के तत्वों (दोषों, धातुओं अर्थात रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र तथा दोषो अर्थात मल, मूत्र, पसीना आदि) के रूप में परिणित करने का कार्य यह ‘पित्त’ ही करता है | वैसे पित्त और अग्नि दोनों भिन्न-भिन्न तत्व है, फिर भी शरीर में अग्नि का प्रतिनिधित्व यह पित्त ही करता है- अर्थात अग्नि के समान ही यह शरीर के तापमान को बनाए रखता है, भोजन का पाचन करता है, रक्त, त्वचा आदि को वर्ण प्रदान करता है, रूप का ग्रहण और प्रकाशन करता है, ह्रदय में एकत्र श्लेष्मा को दूर करता है, मालिश आदि करने से त्वचा में जो स्निग्धता आती है, उसका ग्रहण भी यह पित्त ही करता है | इसके अतिरिक्त मानसिक कार्यों, जैसे- मेधा, शौर्य, साहस, हर्ष आदि का संचालन भी यही करता है |
जब पित्त अपनी सम अवस्था में नहीं होता तो भोजन का पाचन ठीक प्रकार से नहीं हो पाता, पाचक-अग्नि मंद (कमजोर) हो जाती है जिससे कफज भाव की अभिवृद्दी होती है |इसके कारण उत्साह में कमी हो जाती है तथा हृदय, फेफड़ों आदि में कफ इकट्ठा होने लगता है |
१) पाचक पित्त २) रज्जक पित्त ३) साधक पित्त ४) आलोचक पित्त ५) भ्राजक पित्त
केवल पित्त के प्रकोप से होने वाले नानात्मज रोगों की संख्या 40 मानी गई है |
तीनों दोषों में वात के पश्चात पित्त का स्थान आता है | इससे संबंधित विविध पक्षों का वर्णन इस प्रकार है-
पित्त उष्ण (गरम), कुछ स्निग्ध (चिकना) तीक्ष्ण पाचन और दाह (जलन) करने वाला, आशु (तीव्र गति वाला), द्रव (तरल), विस्रगन्धि (कच्चे मांस जैसी गंध वाला) होता है | निराम (आम से रहित-पक्व) दशा में पित्त-रस तिक्त स्वाद वाला तथा रंग में पीला होता है | जबकि साम (कच्ची-अपक्व) दशा में यह स्वाद में खट्टा (अम्ल) और रंग में नीला होता है |
वात के समान शरीर में विद्यमान पित्त भी शरीर की बनावट और स्वाभाव के निर्माण में सहायक होता है | इसके विभिन्न में गुणों का भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता है, जिस व्यक्ति में पित्त दोष अधिक मात्रा में पाया जाता है, वह पित्त प्रधान प्रकृति का माना जाता है | पित्त की उपयुक्त विशेषताओं के आधार पर उसका बल, जीवन की अवधि, आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान, धन एवं जीवन की अन्य प्रतिभाएं मध्यम प्रकार की होती है |
चरपरे, खट्टे, नमकीन, गर्म, विदाही (जलन पैदा करने वाले) तथा बहुत तीखे (लाल मिर्च, आदि) पदार्थों एवं मादक द्रव्यों का अधिक मात्रा में सेवन करने से शरीर में पित्त दोष बढ़ जाता है | इसके अतिरिक्त सूखी सब्जियां और क्षार पदार्थों का प्रयोग, धूप और अग्नि का अधिक सेवन, अधिक मैथुन, अनियमित रूप से भोजन करना, (निश्चित समय पर भोजन ना करना, या बिना भूख के भोजन करना या भूख लगने पर भोजन नहीं करना), अपच (बदहजमी), क्रोध, भय और निराशा के विचार भी शरीर में पित्त दोष को प्रभावित कर देते हैं; कुछ विशेष पदार्थ, जैसे- तिल का तेल, कुलत्थ, सरसों, दही, छाछ, मस्तु, सौवीरक़, व्यसन, खट्टे फल, कटवर तथा गोह, मछली, भेड़ व बकरी का मांस खाने से भी पित्त में वृद्धि होती है | ग्रीष्म ऋतु में तथा क्रोध करने से भी पित्त की वृद्धि होती है |
जब किसी व्यक्ति के शरीर में पित्त दोष का प्रकोप-अर्थात अधिकता हो जाती है, तो थकावट, बल और नींद में कमी, अधिक पसीना, शरीर में जलन व तापमान की अधिकता, त्वचा का रंग पहले की अपेक्षा गाढ़ा हो जाना, अंगों से दुर्गंध आना, चिपचिपाहट, मुंह, गला, आदि का पकना, क्रोध, मूर्छा तथा चक्कर आना आदि लक्षण दिखाई देते हैं | त्वचा, मल, मूत्र, नाखूनों और नेत्र का पीलापन, पित्त प्रकोप के विशेष लक्षण हैं | मुंह का कड़वा और खट्टा स्वाद एवं शीतल आहार-विहार की इच्छा भी पित्त की अधिकता का सूचक है |
सबसे पहले तो उन सब कारणों से दूर रहना चाहिए, जिसके फलस्वरूप पित्त प्रकुपित हुआ है |
विरेचन- (पेट साफ करने की औषधि का सेवन) पित्त प्रकोप को शांत करने के लिए विरेचन सर्वश्रेष्ठ उपाय है, क्योंकि मूल रूप से प्रारंभ में पित्त आमाशय और ग्रहणी में इकट्ठा होता है और विरेचन औषधि इन्हीं अंगों में पहुंच कर वहां एकत्र हुए पित्त को पूरी तरह बाहर निकाल देती है |
पित्त के शमन के लिए घी का सेवन भी बहुत उपयोगी रहता है; क्योंकि इसमें पित्त-विरोधी मधुर, शीत और मंद गुण पाए जाते हैं | पित्त शमन के लिए ऐसे ही अन्य स्निग्ध व सौम्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए | आयुर्वेद में पित्त के पुराने रोगों में तो अलग-अलग प्रकार से औषधि युक्त घी का सेवन कराया जाता है | घृतकुमारी का रस, अंकुरित अन्न, सलाद तथा दलिया आदि का सेवन पित्तप्रकोप को शांत करता है |
जब शरीर में पित्त का क्षय (कमी) हो जाता है, तो अग्निमांध (पाचन शक्ति की कमी), शरीर के तापमान में कमी व मुख की कांति और चमक में कमी हो जाती है तथा ठंड की अनुभूति होती है | पित्त के जो अपने गुण कर्म हैं, वह भी कम मात्रा में कार्य करते हैं |
पित्त की कमी होने पर, उपयुक्त पित्त की वृद्धि करने वाले आहार-विहार का सेवन करना चाहिए | इसके अतिरिक्त ऐसे खाद्य पदार्थों और औषधियों को प्रयोग में लाना चाहिए, जो आग्नेय हो अर्थात जिसमें अग्नि तत्व अधिकता से पाया जाए |
जब पित्त आम-दोष से युक्त होता है, तो वह दुर्गंधयुक्त खट्टा, स्थिर (जल आदि तरल पदार्थों में डालने पर शीध्र न फैलने वाला), गुरु (भारी अपेक्षाकृत गाढ़ा) तथा रंग में हरा तथा श्याम (कालीमा से युक्त) होता है | इस अवस्था में खट्टी डकार आती है और छाती और गले में जलन होती है |
जब पित्त आम से रहित होता है, तो बहुत उष्ण, तिक्त और कटु स्वाद वाला चल या अस्थिर (जल में शीघ्र मिलने वाला), कुछ लाल पीले रंग वाला होता है | यह भोजन में रूचि और पाचन-शक्ति को बढ़ाता है |
साम-पित्त का प्रकोप होने पर तिक्त रस वाले पदार्थों तथा निराम-पित्त का प्रकोप होने पर मधुर और कसैले पदार्थों का सेवन करना चाहिए |
पहले बताया जा चुका है कि अलग-अलग अंगों में रहने और अलग-अलग कार्य करने के कारण पित्त को पाँच भागों में बाँटा गया है | इसके आश्रयस्थान और कार्य आदि भिन्न-भिन्न है |