‘कफ’ शब्द का अर्थ संस्कृत के अनुसार इस प्रकार है केन जलेन फलति निष्पघते इति कफ:, अर्थात जो जल से उत्पन्न होता है उसे कफ कहते हैं | कफ का ही दूसरा नाम ‘श्लेष्मा’ है, इसका अर्थ है-श्लिष्यती इति श्लेष्मा, अर्थात जो संयोग करता है या संश्लेषण करता है, वह श्लेष्मा कहलाता है | यह दोष शरीर के सभी अंगो का पोषण करता है तथा शेष दोनों दोषों वात और पित्त को नियमित करता है | शरीर को स्निगधता (चिकनाहट) और आद्रता (गीलापन) प्रदान करना, संधियों (हड्डियों के जोड़ों) को आपस में मिलाना भी कफ का कार्य है | वृद्धि, काम-शक्ति, बल, उत्साह, घाव का भरना, रोगों के आक्रमण को रोकने की शक्ति, मानसिक और शारीरिक श्रम करने की क्षमता, क्षमा, धैर्य, ज्ञान, विवेक, मानसिक स्थिरता, आदि सभी कार्य और गुण कफ के अधीन है | यदि शरीर में पित्त की गर्मी और वात की रुक्षता बढ़ जाए, तो ‘कफ’ दोष ही स्निग्ध (चिकने) स्त्राव की मात्रा बढ़ाकर उतकों की रक्षा करता है | हमारी नींद का प्रमुख कारण इस कफ में उपस्थित तमोभाव ही है |
यदि किसी कारणवश शरीर में कफ की मात्रा में कमी आ जाए, तो उसके विरोधी दोषों- पित्त और वात- की वृद्धि हो जाती है | इससे पित्त धातुओं का शोषण करने लगता है, जिससे कोषों के बीच (सछिद्रता होने से) होने से वात एकत्र होने लगती है | इसी प्रकार, संधियों, ह्रदय व शरीर के दूसरे अंगों में भी बात का प्रकोप होने लगता है, जबकि सम अवस्था में यही कफ शरीर के कोषों को पुष्टि प्रदान करके उनमें सुशिरता (पोलपन) नहीं रहने देता, जिससे वात का संचार नहीं हो पाता |
अपने आश्रय-स्थान और कार्यों के आधार पर कफ दोष के भी पांच भेद माने गए हैं-
१) क्लेदक २) अवलंबक ३) बोधक ४) तर्पक ५) श्लेषक
आयुर्वेद मे कफ के प्रकोप से होने वाले रोगों की संख्या २० मानी गई है |